तीसरा अध्याय- कर्मयोग, Shreemad Bhagawat Geeta, Chapter: 3 Karmayoga
तीसरा अध्याय- कर्मयोग
अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन |
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव || १ |
शब्दार्थ: अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; ज्यायसी – श्रेष्ठ; चेत् – यदि; कर्मणः – सकाम कर्म की अपेक्षा; ते – तुम्हारे द्वारा; मता – मानी जाति है; बुद्धिः – बुद्धि; जनार्दन – हे कृष्ण; तत् – अतः; किम् – क्यों फिर; कर्मणि – कर्म में; घोरे – भयंकर, हिंसात्मक; माम् – मुझको; नियोजयसि – नियुक्त करते हो; केशव – हे कृष्ण |
भावार्थ: अर्जुन ने कहा – हे जनार्दन, हे केशव! यदि आप बुद्धि को सकाम कर्म से श्रेष्ठ समझते हैं तो फिर आप मुझे इस घोर युद्ध में क्यों लगाना चाहते हैं?
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श्लोक 3 . 2
व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे |
तदेकं वद निश्र्चित्य येन श्रेयोSहमाप्नुयाम् || २ ||
शब्दार्थः व्यामिश्रेण – अनेकार्थक; इव – मानो; वाक्येन – शब्दों से; बुद्धिम् – बुद्धि; मोहयसि – मोह रहे हो; इव – मानो; मे – मेरी; तत् – अतः; एकम् – एकमात्र; वाद – कहिये; निश्र्चित्य – निश्चय करके; येन – जिससे; श्रेयः – वास्तविक लाभ; अहम् – मैं; आप्नुयाम् – पा सकूँ |
भावार्थ: आपके व्यामिश्रित (अनेकार्थक) उपदेशों से मेरी बुद्धि मोहित हो गई है | अतः कृपा करके निश्चयपूर्वक मुझे बतायें कि इनमें से मेरे लिए सर्वाधिक श्रेयस्कर क्या होगा?
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श्लोक 3 . 3
श्रीभगवानुवाच
लोकेस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ |
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम् || ३ ||
शब्दार्थ: श्री-भगवान् उवाच – श्रीभगवान ने कहा; लोके – संसार में; अस्मिन् – इस; द्वि-विधा – दो प्रकार की; निष्ठा – श्रद्धा; पुरा – पहले; प्रोक्ता – कही गई; मया – मेरे द्वारा; अनघ – हे निष्पाप; ज्ञान-योगेन – ज्ञानयोग के द्वारा; सांख्यानाम् – ज्ञानियों का; कर्म-योगेन – भक्तियोग के द्वारा; योगिनाम् – भक्तों का |
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श्लोकः४
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं पुरुषोSश्र्नुते |
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति || ४ ||
शब्दार्थः न – नहीं; कर्मणाम् – नियत कर्मों के; अनाराम्भात् – न करने से; नैष्कर्म्यम् – कर्मबन्धन से मुक्ति को; पुरुषः – मनुष्य; अश्नुते – प्राप्त करता है; न – नहीं; च – भी; संन्यसनात् – त्याग से; एव – केवल; सिद्धिम् – सफलता; समधिगच्छति – प्राप्त करता है |
भावार्थः न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है |
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श्लोक 3 . 5
न हि कश्र्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् |
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः || ५ ||
शब्दार्थ: न – नहीं; हि – निश्चय ही; कश्र्चित् – कोई; क्षणम् – क्षणमात्र; अपि – भी; जातु – किसी काल में; तिष्ठति – रहता है; अकर्म-कृत् – बिना कुछ किये; कार्यते – करने के लिए बाध्य होता है; हि – निश्चय ही; अवशः – विवश होकर; कर्म – कर्म; सर्वः – समस्त; प्रकृति-जैः – प्रकृति के गुणों से उत्पन्न; गुणैः – गुणों के द्वारा |
भावार्थ: रत्येक व्यक्ति को प्रकृति से अर्जित गुणों के अनुसार विवश होकर कर्म करना पड़ता है, अतः कोई भी क्षणभर के लिए भी बिना कर्म किये नहीं रह सकता |
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श्लोक 3 . 6
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् |
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते || ६ ||
शब्दार्थ: कर्म-इन्द्रियाणि – पाँचो कर्मेन्द्रियों को; संयम्य – वश में करके; यः – जो; आस्ते – रहता है; मनसा – मन से; स्मरन् – सोचता हुआ; इन्द्रिय-अर्थान् – दम्भी; सः – वह; उच्यते – कहलाता है |
भावार्थ: जो कर्मेन्द्रियों को वश में तो करता है, किन्तु जिसका मन इन्द्रियविषयों का चिन्तन करता रहता है, वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है |
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श्लोक 3 . 7
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेSर्जुन |
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते || ७ ||
शब्दार्थ: यः – जो; तु – लेकिन; इन्द्रियाणि – इन्द्रियों को; मनसा – मन के द्वारा; नियम्य – वश में करके; आरभते – प्रारम्भ करता है; अर्जुन – हे अर्जुन; कर्म-इन्द्रियैः – कर्मेन्द्रियों से; कर्म-योगम् – भक्ति; असक्तः – अनासक्त; सः – वह; विशिष्यते – श्रेष्ठ है |
भावार्थ: दूसरी ओर यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मेन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्मयोग (कृष्णभावनामृत में) प्रारम्भ करता है, तो वह अति उत्कृष्ट है |
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श्लोक 3 . 8
नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः |
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः || ८ ||
शब्दार्थ: नियतम् – नियत; कुरु – करो; कर्म – कर्तव्य; तवम् – तुम; कर्म – कर्म करना; ज्यायः – श्रेष्ठ; हि – निश्चय ही; अकर्मणः – काम न करने की अपेक्षा; शरीर – शरीर का; यात्रा – पालन, निर्वाह; अपि – भी; च – भी; ते – तुम्हारा; न – कभी नहीं; प्रसिद्धयेत् – सिद्ध होता; अकर्मणः – बिना काम के |
भावार्थः अपना नियत कर्म करो, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है | कर्म के बिना तो शरीर-निर्वाह भी नहीं हो सकता |
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श्लोक 3 . 9
यज्ञार्थात्कर्मणोSन्यत्र लोकोSयं कर्मबन्धनः |
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्गः समाचर || ९ ||
शब्दार्थ: यज्ञ-अर्थात् – एकमात्र यज्ञ या विष्णु के लिए किया गया; कर्मणः – कर्म की अपेक्षा; अन्यत्र – अन्यथा; लोकः – संसार; अयम् – यह; कर्म-बन्धनः – कर्म के कारण बन्धन; तत् – उस; अर्थम् – के लिए; कर्म – कर्म; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; मुक्त-सङ्गः – सङ्ग (फलाकांक्षा) से मुक्त; समाचर – भलीभाँति आचरण करो |
भावार्थ: श्रीविष्णु के लिए यज्ञ रूप में कर्म करना चाहिए, अन्यथा कर्म के द्वारा इस भौतिक जगत् में बन्धन उत्पन्न होता है | अतः हे कुन्तीपुत्र! उनकी प्रसन्नता के लिए अपने नियत कर्म करो | इस तरह तुम बन्धन से सदा मुक्त रहोगे |
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श्लोक 3 . 10
सहयज्ञाः प्रजाः सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापतिः |
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोSस्तिवष्टकामधुक् || १० ||
शब्दार्थ: सह – के साथ; यज्ञाः – यज्ञों; प्रजाः – सन्ततियों; सृष्ट्वा – रच कर; पुरा – प्राचीन काल में; उवाच – कहा; प्रजापतिः – जीवों के स्वामी ने; अनेन – इससे; प्रसविष्यध्वम् – अधिकाधिक समृद्ध होओ; एषः – यह; वः – तुम्हारा; अस्तु – होए; इष्ट – समस्त वांछित वस्तुओं का; काम-धुक् – प्रदाता |
भावार्थ: सृष्टि के प्रारम्भ में समस्त प्राणियों के स्वामी (प्रजापति) ने विष्णु के लिए यज्ञ सहित मनुष्यों तथा देवताओं की सन्ततियों को रचा और उनसे कहा, “तुम इस यज्ञ से सुखी रहो क्योंकि इसके करने से तुम्हें सुखपूर्वक रहने तथा मुक्ति प्राप्त करने के लिए समस्त वांछित वस्तुएँ प्राप्त हो सकेंगी |”
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श्लोक 3 . 11
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः |
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ || ११ ||
शब्दार्थ: देवान् – देवताओं को; भावयता – प्रसन्न करके; अनेन – इस यज्ञ से; ते – वे; देवाः – देवता; भावयन्तु – प्रसन्न करेंगे; वः – तुमको; परस्परम् – आपस में; भावयन्तः – एक दूसरे को प्रसन्न करते हुए; श्रेयः – वर, मंगल; परम् – परम; अवाप्स्यथ – तुम प्राप्त करोगे |
भावार्थ: यज्ञों के द्वारा प्रसन्न होकर देवता तुम्हें भी प्रसन्न करेंगे और इस तरह मनुष्यों तथा देवताओं के मध्य सहयोग से सबों को सम्पन्नता प्राप्त होगी |
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श्लोक 3 . 12
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः |
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः || १२ ||
शब्दार्थ: इष्टान् – वांछित; भोगान् – जीवन की आवश्यकताएँ; हि – निश्चय; वः – तुम्हें; देवाः – देवतागण; दास्यन्ते – प्रदान करेंगे; यज्ञ-भाविताः – यज्ञ सम्पन्न करने से प्रसन्न होकर; तैः – उनके द्वारा; दत्तान् – प्रदत्त वस्तुएँ; अप्रदाय – बिना भेंट किये; एभ्यः – इन देवताओं को; यः – जो; भुङ्क्ते - भोग करता है; स्तेनः – चोर; एव – निश्चय ही; सः – वह |
भावार्थ: जीवन की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाले विभिन्न देवता यज्ञ सम्पन्न होने पर प्रसन्न होकर तुम्हारी सारी आवश्यकताओं की पूर्ति करेंगे | किन्तु जो इन उपहारों को देवताओं को अर्पित किये बिना भोगता है, वह निश्चित रूप से चोर है |
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श्लोक 3 . 13
यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः|
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् || १३ ||
शब्दार्थ: यज्ञ-शिष्ट – यज्ञ सम्पन्न करने के बाद ग्रहण किये जाने वाले भोजन को; अशिनः – खाने वाले; सन्तः – भक्तगण; मुच्यन्ते – छुटकारा पाते हैं; सर्व – सभी प्रकार के; किल्बिषैः – पापों से; भुञ्जते – भोगते हैं; ते – वे; तु – लेकिन; अघम् – घोर पाप; पापाः – पापीजन; ये – जो; पचन्ति – भोजन बनाते हैं; आत्म-कारणात् – इन्द्रियसुख के लिए |
भावार्थ: भगवान् के भक्त सभी प्रकार के पापों से मुक्त हो जाते हैं, क्योंकि वे यज्ञ में अर्पित किये भोजन (प्रसाद) को ही खाते हैं | अन्य लोग, जो अपनी इन्द्रियसुख के लिए भोजन बनाते हैं, वे निश्चित रूप से पाप खाते हैं |
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श्लोक 3 . 14
अन्नाद्भवति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः |
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः || १४ ||
शब्दार्थ: अन्नात् – अन्न से; भवन्ति – उत्पन्न होते हैं; भूतानि – भौतिक शरीर; पर्जन्यात् – वर्षा से; अन्न – अन्न का; सम्भवः – उत्पादन; यज्ञात् – यज्ञ सम्पन्न करने से; भवति – सम्भव होती है; पर्जन्यः – वर्षा; यज्ञः – यज्ञ का सम्पन्न होबा; कर्म – नियत कर्तव्य से; समुद्भवः – उत्पन्न होता है |
भावार्थ: सारे प्राणी अन्न पर आश्रित हैं, जो वर्षा से उत्पन्न होता है | वर्षा यज्ञ सम्पन्न करने से होती है और यज्ञ नियत कर्मों से उत्पन्न होता है |
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श्लोक 3 . 15
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम् |
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम् || १५ ||
शब्दार्थ: कर्म – कर्म; ब्रह्म – वेदों से; उद्भवम् – उत्पन्न; विद्धि – जानो; ब्रह्म – वेद; अक्षर – परब्रह्म से; समुद्भवम् – साक्षात् प्रकट हुआ; तस्मात् – अतः; सर्व-गतम् – सर्वव्यापी; ब्रह्म – ब्रह्म; नित्यम् – शाश्र्वत रूप से; यज्ञे – यज्ञ में; प्रतिष्ठितम् – स्थिर |
भावार्थ: वेदों में नियमित कर्मों का विधान है और ये साक्षात् श्रीभगवान् (परब्रह्म) से प्रकट हुए हैं | फलतः सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञकर्मों में सदा स्थित रहता है |
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श्लोक 3 . 16
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः |
आघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति || १६ ||
शब्दार्थ: एवम् – इस प्रकार; प्रवर्तितम् – वेदों द्वारा स्थापित; चक्रम् – चक्र; न – नहीं; अनुवर्तयति – ग्रहण करता; इह – इस जीवन में; यः – जो; अघ-आयुः – पापपूर्ण जीवन है जिसका; इन्द्रिय-आरामः – इन्द्रियासक्त; मोघम् – वृथा; पार्थ – हे पृथापुत्र (अर्जुन); सः – वह; जीवति – जीवित रहता है |
भावार्थ: वेदों में नियमित कर्मों का विधान है और ये साक्षात् श्रीभगवान् (परब्रह्म) से प्रकट हुए हैं | फलतः सर्वव्यापी ब्रह्म यज्ञकर्मों में सदा स्थित रहता है |
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श्लोक 3 . 17
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्र्च मानवः |
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्य कार्यं न विद्यते || १७ ||
शब्दार्थ: यः – जो; तु – लेकिन; आत्म-रतिः – आत्मा में ही आनन्द लेते हुए; एव – निश्चय ही; स्यात् – रहता है; आत्म-तृप्तः – स्वयंप्रकाशित; च – तथा; मानवः – मनुष्य; आत्मनि – अपने में; एव – केवल; च – तथा; सन्तुष्टः – पूर्णतया सन्तुष्ट; तस्य – उसका; कार्यम् – कर्तव्य; न – नहीं; विद्यते – रहता है |
भावार्थ: किन्तु जो व्यक्ति आत्मा में ही आनन्द लेता है और अपने कृष्णभावनामृत के कार्यों से पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है उसके लिए कुछ करणीय (कर्तव्य) नहीं होता |
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श्लोक 3 . 18
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्र्चन |
न चास्य सर्वभूतेषु कश्र्चिदर्थव्यपाश्रयः || १८ ||
शब्दार्थ: न – कभी नहीं; एव – निश्चय ही; तस्य – उसका; कृतेन – कार्यसम्पादन से; अर्थः – प्रयोजन; न – न तो; अकृतेन – कार्य न करने से; इह – इस संसार में; कश्र्चन – जो कुछ भी; न – कभी नहीं; च – तथा; अस्य – उसका; सर्वभूतेषु – समस्त जीवों में; कश्र्चित् – कोई; अर्थ – प्रयोजन; व्यपाश्रयः – शरणागत |
भावार्थ: स्वरुपसिद्ध व्यक्ति के लिए न तो अपने नियत कर्मों को करने की आवश्यकता रह जाती है, न ऐसा कर्म न करने का कोई कारण ही रहता है | उसे किसी अन्य जीव पर निर्भर रहने की आवश्यकता भी नहीं रह जाती |
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श्लोक 3 . 19
तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचार |
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः || १९ ||
शब्दार्थ: तस्मात् - अतः; असक्तः – आसक्तिरहित; सततम् – निरन्तर; कार्यम् – कर्तव्य के रूप में; कर्म – कार्य; समाचर – करो; असक्तः – अनासक्त; हि – निश्चय ही; आचरन् – करते हुए; कर्म – कार्य; परम् – परब्रह्म को; आप्नोति – प्राप्त करता है; पुरुषः – पुरुष, मनुष्य |
भावार्थ: अतः कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरन्तर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से परब्रह्म (परम) की प्राप्ति होती है |
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श्लोक 3 . 20
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः |
लोकसङ्ग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि || २० ||
शब्दार्थ: कर्मणा – कर्म से; एव – ही; हि – निश्चय ही; संसिद्धिम् – पूर्णता में; आस्थिताः – स्थित; जनक-आदयः – जनक तथा अन्य राजा; लोक-सङ्ग्रहम् – सामान्य लोग; एव अपि – भी; सम्पश्यन् – विचार करते हुए; कर्तुम् – करने के लिए; अर्हसि – योग्य हो |
भावार्थ: जनक जैसे राजाओं ने केवल नियत कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त की | अतः सामान्य जनों को शिक्षित करने की दृष्टि से तुम्हें कर्म करना चाहिए |
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श्लोक 3 . 21
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते || २१ ||
शब्दार्थ: यत् यत् – जो-जो; आचरति – करता है; श्रेष्ठः – आदरणीय नेता; तत् – वही; तत् – तथा केवल वही; एव – निश्चय ही; इतरः – सामान्य; जनः – व्यक्ति; सः – वह; यत् – जो कुछ; प्रमाणम् – उदाहरण, आदर्श; कुरुते – करता है; लोकः – सारा संसार; तत् – उसके; अनुवर्तते – पदचिन्हों का अनुसरण करता है |
भावार्थ: महापुरुष जो जो आचरण करता है, सामान्य व्यक्ति उसी का अनुसरण करते हैं | वह अपने अनुसरणीय कार्यों से जो आदर्श प्रस्तुत करता है, सम्पूर्ण विश्र्व उसका अनुसरण करता है |
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श्लोक 3 . 22
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन |
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्माणि || २२ ||
शब्दार्थ: न – नहीं; मे – मुझे; पार्थ – हे पृथापुत्र; अस्ति – है; कर्तव्यम् – नियत कार्य; त्रिषु – तीनों; लोकेषु – लोकों में; किञ्चन - कोई; न – कुछ नहीं; अनवाप्तम् – पाने के लिए; वर्ते – लगा रहता हूँ; एव – निश्चय ही; च – भी; कर्मणि – नियत कर्मों में |
भावार्थ: हे पृथापुत्र! तीनों लोकों में मेरे लिए कोई भी कर्म नियत नहीं है, न मुझे किसी वस्तु का अभाव है और न आवश्यकता ही है | तो भी मैं नियत्कर्म करने में तत्पर रहता हूँ |
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श्लोक 3 . 23
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः |
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः || २३ ||
शब्दार्थ: यदि – यदि; हि – निश्चय ही; अहम् – मैं; न – नहीं; वर्तेयम् – इस प्रकार व्यस्त रहूँ; जातु – कभी; कर्मणि – नियत कर्मों के सम्पादन में; अतन्द्रितः – सावधानी के साथ; मम – मेरा; वर्त्म – पथ; अनुवर्तन्ते – अनुगमन करेंगे; मनुष्यः – सारे मनुष्य; पार्थ – हे पृथापुत्र; सर्वशः – सभी प्रकार से |
भावार्थ: क्योंकि यदि मैं नियत कर्मों को सावधानीपूर्वक न करूँ तो हे पार्थ! यह निश्चित है कि सारे मनुष्य मेरे पथ का ही अनुगमन करेंगे |
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श्लोक 3 . 24
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम् |
सङ्करस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः || २४ ||
शब्दार्थ: उत्सीदेयुः – नष्ट हो जायं ; इमे – ये सब; लोकाः – लोक; न – नहीं; कुर्याम् – करूँ; कर्म – नियत कार्य; चेत् – यदि; अहम् – मैं; संकरस्य – अवांछित संतति का; च – तथा; करता – स्रष्टा; स्याम् – होऊँगा; उपन्याम् – विनष्ट करूँगा; इमाः – इन सब; प्रजाः – जीवों को |
भावार्थ: यदि मैं नियतकर्म न करूँ तो ये सारे लोग नष्ट हो जायं | तब मैं अवांछित जन समुदाय (वर्णसंकर) को उत्पन्न करने का कारण हो जाऊँगा और इस तरह सम्पूर्ण प्राणियों की शान्ति का विनाशक बनूँगा |
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श्लोक 3 . 25
सक्ताः कर्मण्यविद्वांसो यथा कुर्वन्ति भारत |
कुर्याद्विद्वांस्तथासक्तश्र्चिकीर्षुर्लोकसङ्ग्रहम् || २५ ||
शब्दार्थ: सक्ताः – आसक्त; कर्मणि – नियत कर्मों में; अविद्वांसः – अज्ञानी; कुर्वन्ति – करते हैं; भारत – हे भारतवंशी; कुर्यात् – करना चाहिए; विद्वान – विद्वान; तथा – उसी तरह; असक्तः – अनासक्त; चिकीर्षुः – चाहते हुए भी, इच्छुक; लोक-संग्रहम् – सामान्य जन |
भावार्थ: जिस प्रकार अज्ञानी-जन फल की आसक्ति से कार्य करते हैं, उसी तरह विद्वान जनों को चाहिए कि वे लोगों को उचित पथ पर ले जाने के लिए अनासक्त रहकर कार्य करें |
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श्लोक 3 . 26
न बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्मसङ्गिनाम् |
जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्तः समाचरन् || २६ ||
शब्दार्थ: न – नहीं; बुद्धिभेदम् – बुद्धि का विचलन; जन्येत् – उत्पन्न करे; अज्ञानाम् – मूर्खों का; कर्म-संगिनाम् – सकाम कर्मों में; जोषयेत् – नियोजित करे; सर्व – सारे; कर्माणि – कर्म; विद्वान् – विद्वान व्यक्ति; युक्तः – लगा हुआ; समाचरन् – अभ्यास करता हुआ |
भावार्थ: विद्वान व्यक्ति को चाहिए कि वह सकाम कर्मों में आसक्त अज्ञानी पुरुषों को कर्म करने से रोके नहीं ताकि उनके मन विचलित न हों | अपितु भक्तिभाव से कर्म करते हुए वह उन्हें सभी प्रकार के कार्यों में लगाए (जिससे कृष्णभावनामृत का क्रमिक विकास हो) |
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श्लोक 3 . 27
प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः |
अहङ्कारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते || २७ ||
शब्दार्थ: प्रकृतेः – प्रकृति का; क्रियमाणानि – किये जाकर; गुणैः – गुणों के द्वारा; कर्माणि – कर्म; सर्वशः – सभी प्रकार के;अहङ्कार-विमूढ – अहंकार से मोहित; आत्मा –आत्मा; कर्ता – करने वाला; अहम् – मैं हूँ; इति – इस प्रकार; मन्यते – सोचता है |
भावार्थ: जीवात्मा अहंकार के प्रभाव से मोहग्रस्त होकर अपने आपको समस्त कर्मों का कर्ता मान बैठता है, जब कि वास्तव में वे प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा सम्पन्न किये जाते हैं |
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श्लोक 3 . 28
तत्त्ववित्तु महाबाहो गुणकर्मविभागयो: |
गुणा गुणेषु वर्तन्त इति मत्वा न सज्जते || २८ ||
शब्दार्थ: तत्त्ववित् – परम सत्य को जानने वाला; तु – लेकिन; महाबाहो – हे विशाल भुजाओं वाले; गुण-कर्म – भौतिक प्रभाव के अन्तर्गत कर्म के; विभाग्योः – भेद के; गुणाः – इन्द्रियाँ; गुणेषु – इन्द्रियतृप्ति में; वर्तन्ते – तत्पर रहती हैं; इति – इस प्रकार; मत्वा – मानकर; न – कभी नहीं; सज्जते – आसक्त होता है |
भावार्थ: हे महाबाहो! भक्तिभावमय कर्म तथा सकाम कर्म के भेद को भलीभाँति जानते हुए जो परमसत्य को जानने वाला है, वह कभी भी अपने आपको इन्द्रियों में तथा इन्द्रियतृप्ति में नहीं लगाता |
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श्लोक 3 . 29
प्रकृतेर्गुणसम्मूढा: सज्जन्ते गुणकर्मसु |
तानकृत्स्नविदो मन्दान्कृत्स्नविन्न विचालयेत् || २९ ||
शब्दार्थ: प्रकृतेः – प्रकृति के; गुण – गुणों से; सम्मूढाः – भौतिक पहचान से बेवकूफ बने हुए; सज्जन्ते – लग जाते हैं; गुण-कर्मसु – भौतिक कर्मों में; तान् – उन; अकृत्स्नविदः – अल्पज्ञानी पुरुष; मन्दान् – आत्म-साक्षात्कार समझने में आलसियों को; कृत्स्न-वित् – ज्ञानी; विचालयेत् – विचलित करने का प्रयत्न करना चाहिए |
भावार्थ: माया के गुणों से मोहग्रस्त होने पर अज्ञानी पुरुष पूर्णतया भौतिक कार्यों में संलग्न रहकर उनमें आसक्त हो जाते हैं | यद्यपि उनके ये कार्य उनमें ज्ञानभाव के कारण अधम होते हैं, किन्तु ज्ञानी को चाहिए कि उन्हें विचलित न करे |
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श्लोक 3 . 30
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा |
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः || ३० ||
शब्दार्थ: मयि – मुझमें; सर्वाणि – सब तरह के; कर्माणि – कर्मों को; संन्यस्य – पूर्णतया त्याग करके; अध्यात्म – पूर्ण आत्मज्ञान से युक्त; चेतसा – चेतना से; निराशीः – लाभ की आशा से रहित, निष्काम; निर्ममः – स्वामित्व की भावना से रहित, ममतात्यागी; भूत्वा – होकर; युध्यस्व – लड़ो; विगत-ज्वरः – आलस्यरहित |
भावार्थ: हे अर्जुन! अपने सारे कार्यों को मुझमें समर्पित करके मेरे पूर्ण ज्ञान से युक्त होकर, लाभ की आकांशा से रहित, स्वामित्व के किसी दावे के बिना तथा आलस्य से रहित होकर युद्ध करो |
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श्लोक 3 . 31
ये ते मतमिदं नित्यमनुतिष्ठन्ति मानवाः |
श्रद्धावन्तोSनसूयन्तो मुच्यन्ते तेSपि कर्मभिः || ३१ ||
शब्दार्थः ये – जो; मे – मेरे; मतम् – आदेशों को; इदम् – इन; नित्यम् – नित्यकार्य के रूप में; अनुतिष्ठन्ति – नियमित रूप से पालन करते हैं; मानवाः – मानव प्राणी। श्रद्धा-वन्तः – श्रद्धा तथा भक्ति समेत; अनसूयन्तः – बिना ईर्ष्या के; मुच्यन्ते – मुक्त हो जाते हैं; ते – वे; अपि – भी; कर्मभिः – सकामकर्मों के नियमरूपी बन्धन से |
भावार्थः जो व्यक्ति मेरे आदेशों के अनुसार अपना कर्तव्य करते रहते हैं और ईर्ष्यारहित होकर इस उपदेश का श्रद्धापूर्वक पालन करते हैं, वे सकाम कर्मों के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं |
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श्लोक 3 . 32
ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् |
सर्वज्ञानविमुढ़ांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः || ३२ ||
शब्दार्थ: ये – जो; तु – किन्तु; एतत् – इस; अभ्यसूयन्तः – ईर्ष्यावश; न – नहीं; अनुतिष्ठन्ति – नियमित रूप से सम्पन्न करते हैं; मे – मेरा; मतम् – आदेश; सर्व-ज्ञान – सभी प्रकार के ज्ञान में; विमूढान् – पूर्णतया दिग्भ्रमित; तान् – उन्हें; विद्धि – ठीक से जानो; नष्टान् – नष्ट हुए; अचेतसः – कृष्णभावमृत रहित |
भावार्थ: किन्तु जो ईर्ष्यावश इन उपदेशों की अपेक्षा करते हैं और इनका पालन नहीं करते उन्हें समस्त ज्ञान से रहित, दिग्भ्रमित तथा सिद्धि के प्रयासों में नष्ट-भ्रष्ट समझना चाहिए |
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श्लोक 3 . 33
सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि |
प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति || ३३ ||
शब्दार्थ: सदृशम् – अनुसार; चेष्टते – चेष्टा करता है; स्वस्याः – अपने; प्रकृतेः – गुणों से; ज्ञान-वान् – विद्वान्; अपि – यद्यपि; प्रकृतिम् – प्रकृति को; यान्ति – प्राप्त होते हैं; भूतानि – सारे प्राणी; निग्रहः – दमन; किम् – क्या; करिष्यति – कर सकता है |
भावार्थ: ज्ञानी पुरुष भी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करता है, क्योंकि सभी प्राणी तीनों गुणों से प्राप्त अपनी प्रकृति का ही अनुसरण करते हैं | भला दमन से क्या हो सकता है?
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श्लोक 3 . 34
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ |
तयोर्न वशमागच्छेतौ ह्यस्य परिपन्थिनौ || ३४ ||
शब्दार्थ: इन्द्रियस्य – इन्द्रिय का; इन्द्रियस्य-अर्थे – इन्द्रियविषयों में; राग – आसक्ति; द्वेषौ – तथा विरक्ति; व्यवस्थितौ – नियमों के अधीन स्थित; तयोः – उनके; न – कभी नहीं; वशम् – नियन्त्रण में; आगच्छेत् – आना चाहिए; तौ – वे दोनों; हि – निश्चय ही; अस्य – उसका; परिपन्थिनौ – अवरोधक |
भावार्थ: प्रत्येक इन्द्रिय तथा उसके विषय से सम्बन्धित राग-द्वेष को व्यवस्थित करने के नियम होते हैं | मनुष्य को ऐसे राग तथा द्वेष के वशीभूत नहीं होना चाहिए क्योंकि ये आत्म-साक्षात्कार के मार्ग में अवरोधक हैं |
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श्लोक 3 . 35
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात् |
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः || ३५ ||
शब्दार्थः श्रेयान् – अधिक श्रेयस्कर; स्वधर्मः – अपने नियतकर्म; विगुणः – दोषयुक्त भी; पर-धर्मात् – अन्यों के लिए उल्लेखित कार्यों की अपेक्षा; सू-अनुष्ठितात् – भलीभाँति सम्पन्न; स्व-धर्मे – अपने नियत्कर्मों में; निधनम् – विनाश, मृत्यु; श्रेयः – श्रेष्ठतर; पर-धर्मः – अन्यों के लिए नियतकर्म; भय-आवहः – खतरनाक, डरावना |
भावार्थः अपने नियतकर्मों को दोषपूर्ण ढंग से सम्पन्न करना भी अन्य के कर्मों को भलीभाँति करने से श्रेयस्कर है | स्वीय कर्मों को करते हुए मरना पराये कर्मों में प्रवृत्त होने की अपेक्षा श्रेष्ठतर है, क्योंकि अन्य किसी के मार्ग का अनुसरण भयावह होता है |
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श्लोक 3 . 36
अर्जुन उवाच
अथ केन प्रयुक्तोSयं पापं चरति पुरुषः |
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः || ३६ ||
शब्दार्थ: अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; अथ – तब; केन – किस के द्वारा; प्रयुक्तः – प्रेरित; अयम् – यः; पापम् – पाप; चरति – करता है; पुरुषः – व्यक्ति; अनिच्छन् – न चाहते हुए; अपि – यद्यपि; वार्ष्णेय – हे वृष्णिवंशी; बलात् – बलपूर्वक; इव – मानो; नियोजितः – लगाया गया |
भावार्थ: अर्जुन ने कहा – हे वृष्णिवंशी! मनुष्य न चाहते हुए भी पापकर्मों के लिए प्रेरित क्यों होता है? ऐसा लगता है कि उसे बलपूर्वक उनमें लगाया जा रहा हो |
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श्लोक 3 . 37
श्री भगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः |
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम् || ३७ ||
शब्दार्थ: श्री-भगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा; कामः – विषयवासना; एषः – यह; क्रोधः – क्रोध; एषः – यः; रजो-गुण – रजोगुण से; समुद्भवः – उत्पन्न; महा-अशनः – सर्वभक्षी; महा-पाप्मा – महान पापी; विद्धि – जानो; एनम् – इसे; इह – इस संसार में; वैरिणम् – महान शत्रु |
भावार्थ: श्रीभगवान् ने कहा – हे अर्जुन! इसका कारण रजोगुण के सम्पर्क से उत्पन्न काम है, जो बाद में क्रोध का रूप धारण करता है और जो इस संसार का सर्वभक्षी पापी शत्रु है |
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श्लोक 3 . 38
धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च |
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् || ३८ ||
शब्दार्थ: धूमेन - धुएँ से; आव्रियते - ढक जाती है; वहिनः - अग्नि; आदर्शः - शीशा, दर्पण; मलेन - धूल से; च - भी; यथा - जिस प्रकार; उल्बेन - गर्भाशय द्वारा; आवृतः - ढका रहता है; गर्भः - भ्रूण, गर्भ; तथा - उसी प्रकार; तेन - काम से; इदम् - यह; आवृतम् - ढका है ।
भावार्थ: जिस प्रकार अग्नि धुएँ से, दर्पण धूल से अथवा भ्रूण गर्भाशय से आवृत रहता है, उसी प्रकार जीवात्मा इस काम की विभिन्न मात्राओं से आवृत रहता है ।
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श्लोक 3 . 39
आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा |
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च || ३९ ||
शब्दार्थ: आवृतम् – ढका हुआ; ज्ञानम् – शुद्ध चेतना; एतेन – इससे; ज्ञानिनः – ज्ञाता का; नित्य-वैरिणा – नित्य शत्रु द्वारा; काम-रूपेण – काम के रूप में; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; दुष्पूरेण – कभी भी तुष्ट न होने वाली; अनलेन – अग्नि द्वारा; च – भी |
भावार्थ: इस प्रकार ज्ञानमय जीवात्मा की शुद्ध चेतना उसके काम रूपी नित्य शत्रु से ढकी रहती है जो कभी भी तुष्ट नहीं होता और अग्नि के समान जलता रहता है |
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श्लोक 3 . 40
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते |
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् || ४० ||
शब्दार्थ: इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ; मनः – मन; बुद्धिः – बुद्धि; अस्य – इस काम का; अधिष्ठानम् – निवासस्थान; उच्यते – कहा जाता है; एतैः – इन सबों से; विमोहयति – मोहग्रस्त करता है ; एषः – यह काम; ज्ञानम् – ज्ञान को; आवृत्य – ढक कर; देहिनम् – शरीरधारी को |
भावार्थ: इन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि इस काम के निवासस्थान हैं | इनके द्वारा यह काम जीवात्मा के वास्तविक ज्ञान को ढक कर उसे मोहित कर लेता है |
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श्लोक 3 . 41
तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ |
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम् || ४१ ||
शब्दार्थ: तस्मात् - अतः; त्वम् - तुम; इन्द्रियाणि - इन्द्रियों को ; आदौ - प्रारम्भ में; नियम्य - नियमित करके; भरत-ऋषभ - हे भरत वंशियों में श्रेष्ठ; पाप्मानम् - पाप के महान प्रतीक को; प्रजहि - दमन करो; हि - निश्चय हि; एनम् - इस; ज्ञान - ज्ञान; विज्ञान - तथा शुद्ध आत्मा के वैज्ञानिक ज्ञान का; नाशनम् - संहर्ता, विनाश करने वाला |
भावार्थ: इसलिए हे भरतवंशियों में श्रेष्ठ अर्जुन! प्रारम्भ में ही इन्द्रियों को वश में करके इस पाप का महान प्रतीक (काम) का दमन करो और ज्ञान तथा आत्म-साक्षात्कार के इस विनाशकर्ता का वध करो ।
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श्लोक 3 . 42
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः |
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु सः || ४२ ||
शब्दार्थ: इन्द्रियाणि - इन्द्रियों को; पराणि - श्रेष्ठ; आहुः - कहा जाता है; इन्द्रियेभ्यः - इन्द्रियों से बढकर; परम् - श्रेष्ठ; मनः - मन की अपेक्षा; तु - भी; परा - श्रेष्ठ; बुद्धिः - बुद्धि; यः - जो; बुद्धेः - बुद्धि से भी; परतः - श्रेष्ठ; तु - किन्तु, सः - वह |
भावार्थ: कर्मेन्द्रियाँ जड़ पदार्थ की अपेक्षा श्रेष्ठ हैं, मन इन्द्रियों से बढ़कर है, बुद्धि मन से भी उच्च है और वह (आत्मा) बुद्धि से भी बढ़कर है ।
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श्लोक 3 . 43
एवं बुद्धे: परं बुद्ध्वा संस्ताभ्यात्मानमात्मना |
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् || ४३ ||
शब्दार्थ: एवम् – इस प्रकार; बुद्धेः – बुद्धि से; परम् – श्रेष्ठ; बुद्ध्वा – जानकर; संसत्भ्य – स्थिर करके; आत्मानम् – मन को; आत्मना – सुविचारित बुद्धि द्वारा; जहि – जीतो; शत्रुम् – शत्रु को; महा-बाहो – हे महाबाहु; काम-रूपम् – काम के रूप में; दुरासदम् – दुर्जेय |
भावार्थ: इस प्रकार हे महाबाहु अर्जुन! अपने आपको भौतिक इन्द्रियों, मन तथा बुद्धि से परे जान कर और मन को सावधान आध्यात्मिक बुद्धि (कृष्णभावनामृत) से स्थिर करके आध्यात्मिक शक्ति द्वारा इस काम-रूपी दुर्जेय शत्रु को जीतो |
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ॐ तत्सदिति श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मयोगो नाम तृतीयोऽध्यायः ॥3॥
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