Header Ads


पाँचवा अध्याय- कर्मसंन्यासयोग Shreemad Bhagawat Geeta, Chapter: 5, Karma Sanyashyoga

श्रीमदभगवत गीता


Shreemad Bhagawat Geeta


पाँचवा अध्याय- कर्मसंन्यासयोग


श्लोक 5 . 1

अर्जुन उवाच

सन्न्यासं कर्म णां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि |

    यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्र्चितम् || १ ||

शब्दार्थ: अर्जुनः उवाच – अर्जुन ने कहा; संन्यासम् – संन्यास; कर्मणाम् – सम्पूर्ण कर्मों के; कृष्ण – हे कृष्ण; पुनः – फिर; योगम् – भक्ति; शंससि – प्रशंसा करते हो; यत् – जो; श्रेयः – अधिक लाभप्रद है; एतयोः – इन दोनों में से; एकम् – एक; तत् – वह; मे – मेरे लिए; ब्रूहि – कहिये; सु-निश्चितम् – निश्चित रूप से |

  भावार्थ: अर्जुन ने कहा – हे कृष्ण! पहले आप मुझसे कर्म त्यागने के लिए कहते हैं और फिर भक्तिपूर्वक कर्म करने का आदेश देते हैं | क्या आप अब कृपा करके निश्चित रूप से मुझे बताएँगे कि इन दोनों में से कौन अधिक लाभप्रद है?


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 2 श्रीभगवानुवाच

सन्न्यासः कर्मयोगश्र्च निःश्रेयसकरावुभौ |

तयोस्तु कर्मसन्न्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते || २ ||

शब्दार्थ: श्री-भगवान् उवाच – श्रीभगवान् ने कहा; संन्यास – कर्म का परित्याग; कर्मयोगः – निष्ठायुक्त कर्म; च – भी; निःश्रेयस-करो – मुक्तिपथ को ले जाने वाले; उभौ – दोनों; तयोः – दोनों में से; तु – लेकिन; कर्म-संन्यासात् – सकामकर्मों के त्याग से; कर्म-योगः – निष्ठायुक्त कर्म; विशिष्यते – श्रेष्ठ है |

  भावार्थ: श्रीभगवान् ने उत्तर दिया – मुक्ति में लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय-कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं | किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 3

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्क्षति |

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते || ३ ||

शब्दार्थ: ज्ञेयः – जानना चाहिए; सः – वह; नित्य - सदैव; संन्यासी – संन्यासी; यः – जो; न – कभी नहीं; द्वेष्टि – घृणा करता है; न – न तो; काङ्क्षति – इच्छा करता है; निर्द्वन्द्वः – समस्त द्वैतताओं से मुक्त; हि – निश्चय ही; महाबाहो – हे बलिष्ट भुजाओं वाले; सुखम् – सुखपूर्वक; बन्धात् – बन्धन से; प्रमुच्यते – पूर्णतया मुक्त हो जाता है |

  भावार्थ: जो पुरुष न तो कर्मफलों से घृणा करता है और न कर्मफल की इच्छा करता है, वह नित्य संन्यासी जाना जाता है | हे महाबाहु अर्जुन! ऐसा मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से रहित होकर भवबन्धन को पार कर पूर्णतया मुक्त हो जाता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 4

सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः |

एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् || ४ ||

शब्दार्थ: सांख्य – भौतिक जगत् का विश्लेषात्मक अध्ययन; योगौ – भक्तिपूर्ण कर्म, कर्मयोग; पृथक् – भिन्न; बालाः – अल्पज्ञ; प्रवदन्ति – कहते हैं; न – कभी नहीं; पण्डिताः – विद्वान जन; एकम् – एक में; अपि – भी; आस्थितः – स्थित; सम्यक् – पूर्णतया; उभयोः – दोनों को; विन्दते – भोग करता है; फलम् – फल |

  भावार्थ: अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत् के विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं | जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 5

यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते |

एकं सांख्यं च योगं च यः पश्यति स पश्यति || ५ ||

शब्दार्थ: यत् – जो; सांख्यैः - सांख्य दर्शन के द्वारा; प्राप्यते – प्राप्त किया जाता है; स्थानम् – स्थान; तत् – वही; योगैः – भक्ति द्वारा; अपि – भी; गम्यते – प्राप्त कर सकता है; एकम् – एक; सांख्यम् – विश्लेषात्मक अध्ययन को; च – तथा; योगम् – भक्तिमय कर्म को; च – तथा; यः – जो; पश्यति – देखता है; सः – वह; पश्यति – वास्तव में देखता है |

  भावार्थ: जो यह जानता है कि विश्लेषात्मक अध्ययन (सांख्य) द्वारा प्राप्य स्थान भक्ति द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, और इस तरह जो सांख्ययोग तथा भक्तियोग को एकसमान देखता है, वही वस्तुओं को यथारूप देखता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 6

संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगतः |

योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म नचिरेणाधिगच्छति || ६ ||

शब्दार्थ: संन्यासः – संन्यास आश्रम; तु – लेकिन; महाबाहो – हे बलिष्ठ भुजाओं वाले; दुःखम् – दुख; आप्तुम् – से प्रभावित; अयोगतः – भक्ति के बिना; योग-युक्तः – भक्ति में लगा हुआ; मुनिः – चिन्तक; ब्रह्म – परमेश्र्वर को; न चिरेण – शीघ्र ही; अधिगच्छति – प्राप्त करता है |

  भावार्थ: भक्ति में लगे बिना केवल समस्त कर्मों का परित्याग करने से कोई सुखी नहीं बन सकता | परन्तु भक्ति में लगा हुआ विचारवान व्यक्ति शीघ्र ही परमेश्र्वर को प्राप्त कर लेता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 7

योगयुक्तो विश्रुद्धात्मा विजितात्मा जितेन्द्रियः |

सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते || ७ ||

शब्दार्थ: योग-युक्तः – भक्ति में लगे हुए; विशुद्ध-आत्मा – शुद्ध आत्मा; विजित-आत्मा – आत्म-संयमी; जित-इन्द्रियः – इन्द्रियों को जितने वाला; सर्व-भूत – समस्त जीवों के प्रति; आत्म-भूत-आत्मा – दयालु; कुर्वन् अपि – कर्म में लगे रहकर भी; न – कभी नहीं; लिप्यते – बँधता है |

  भावार्थ: जो भक्तिभाव में कर्म करता है, जो विशुद्ध आत्मा है और अपने मन तथा इन्द्रियों को वश में रखता है, वह सबों को प्रिय होता है और सभी लोग उसे प्रिय होते हैं | ऐसा व्यक्ति कर्म करता हुआ भी कभी नहीं बँधता |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 8-9

नैव किञ्चित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् |

पश्यञ्शृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्र्नन्गच्छन्स्वपन्श्र्वसन् || ८ ||

प्रलपन्विसृजन्गृह्रन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि |

इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् || ९ ||

शब्दार्थ: न – नहीं; एव – निश्चय ही; किञ्चित् – कुछ भी; करोमि – करता हूँ; इति – इस प्रकार; युक्तः – दैवी चेतना में लगा हुआ; मन्येत – सोचता है; तत्त्ववित् – सत्य को जानने वाला। पश्यन् – देखता हुआ; शृण्वन् – सुनता हुआ; स्पृशन् – स्पर्श करता हुआ; जिघ्रन – सूँघता हुआ; अश्नन् – खाता हुआ; गच्छन्- जाता; स्वपन् – स्वप्न देखता हुआ; श्र्वसन् – साँस लेता हुआ।

प्रलपन् – वाट करता हुआ; विसृजन् – त्यागता हुआ; गृह्णन् – स्वीकार करता हुआ; उन्मिषन् – खोलता हुआ; निमिषन् – बन्द करता हुआ; अपि – तो भी। इन्द्रियाणि – इन्द्रियों को; इन्द्रिय-अर्थेषु – इन्द्रिय-तृप्ति में; वर्तन्ते – लगी रहने देकर; इति – इस प्रकार; धारयन् – विचार करते हुए |

  भावार्थ: दिव्य भावनामृत युक्त पुरुष देखते, सुनते, स्पर्श करते, सूँघते, खाते, चलते-फिरते, सोते तथा श्र्वास लेते हुए भी अपने अन्तर में सदैव यही जानता रहता है कि वास्तव में वह कुछ भी नहीं करता | बोलते, त्यागते, ग्रहण करते या आँखे खोलते-बन्द करते हुए भी वह यह जानता रहता है कि भौतिक इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त है और वह इन सबसे पृथक् है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 10

ब्रह्मण्याधाय कर्माणि सङ्गं त्यक्त्वा करोति यः |

लिप्यते न स पापेन पद्मपत्रमिवाम्भसा || १० ||

शब्दार्थ: ब्रह्मणि – भगवान् में; आधाय – समर्पित करके; कर्माणि – सारे कार्यों को; सङ्गम् – आसक्ति; त्यक्त्वा – त्यागकर; करोति – करता है; यः – जो; लिप्यते – प्रभावित होता है; न – कभी नहीं; सः – वह; पापेन – पाप से; पद्म-पत्रम् – कमल पत्र; इव – के सदृश; अम्भसा – जल के द्वारा |

  भावार्थ: जो व्यक्ति कर्मफलों को परमेश्र्वर को समर्पित करके आसक्तिरहित होकर अपना कर्म करता है, वह पापकर्मों से उसी प्रकार अप्रभावित रहता है, जिस प्रकार कमलपत्र जल से अस्पृश्य रहता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 11

कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि |

योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मश्रुद्धये || ११ ||

शब्दार्थ: कायेन – शरीर से; मनसा – मन से; बद्धया – बुद्धि से; केवलैः – शुद्ध; इन्द्रियैः – इन्द्रियों से; अपि – भी; योगिनः – कृष्णभावनाभावित व्यक्ति; कर्म – कर्म; कुर्वन्ति – करते हैं; सङ्गं – आसक्ति; त्यक्त्वा – त्याग कर; आत्म- आत्मा की; शुद्धये – शुद्धि के लिए |

  भावार्थ: योगीजन आसक्तिरहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इन्द्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 12

युक्तः कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् |

अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते || १२ ||

शब्दार्थ: युक्तः – भक्ति में लगा हुआ; कर्म-फलम् – समस्त कर्मों के फल; त्यक्त्वा – त्यागकर; शान्तिम् – पूर्ण शान्ति को; आप्नोति – प्राप्त करता है; नैष्ठिकीम् – अचल; अयुक्तः – कृष्णभावना से रहित; काम-कारेण – कर्मफल को भोगने के कारण; फले – फल में; सक्तः – आसक्त; निबध्यते – बँधता है |

  भावार्थ: निश्चल भक्त शुद्ध शान्ति प्राप्त करता है क्योंकि वह समस्त कर्मफल मुझे अर्पित कर देता है, किन्तु जो व्यक्ति भगवान् से युक्त नहीं है और जो अपने श्रम का फलकामी है, वह बँध जाता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 13

सर्वकर्माणि मनसा सन्न्यस्यास्ते सुखं वशी |

नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन्न कारयन् || १३ ||

शब्दार्थ: सर्व – समस्त; कर्माणि – कर्मों को; मनसा – मन से; संन्यस्य – त्यागकर; आस्ते – रहता है; सुखम् – सुख में; वशी – संयमी; नव-द्वारे – नौ द्वारों वाले; पुरे – नगर में; देही – देहवान् आत्मा; न – नहीं;एव – निश्चय ही; कुर्वन् – करता हुआ; न – नहीं; कारयन् – कराता हुआ |

  भावार्थ: जब देहधारी जीवात्मा अपनी प्रकृति को वश में कर लेता है और मन से समस्त कर्मों का परित्याग कर देता है तब वह नौ द्वारों वाले नगर (भौतिक शरीर) में बिना कुछ किये कराये सुखपूर्वक रहता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 14

न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु: |

न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते || १४ ||

शब्दार्थ: न – नहीं; कर्तृत्वम् – कर्तापन या स्वामित्व को; न – न तो; कर्माणि – कर्मों को; लोकस्य – लोगों के; सृजति – उत्पन्न करता है; प्रभुः – शरीर रूपी नगर का स्वामी; न – न तो; कर्म-फल – कर्मों के फल से; संयोगम् – सम्बन्ध को; स्वभावः – प्रकृति के गुण; तु – लेकिन; प्रवर्तते – कार्य करते हैं |

  भावार्थ: शरीर रूपी नगर का स्वामी देहधारी जीवात्मा न तो कर्म का सृजन करता है, न लोगों को कर्म करने के लिए प्रेरित करता है, न ही कर्मफल की रचना करता है | यह सब तो प्रकृति के गुणों द्वारा ही किया जाता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 15

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु: |

अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः || १५ ||

शब्दार्थ: न – कभी नहीं; आदत्ते – स्वीकार करता है; कस्यचित् – किसी की; पापम् – पाप; न – न तो; च – भी; एव – निश्चय ही; सु-कृतम् – पुण्य को; विभुः – परमेश्र्वर; अज्ञानेन – अज्ञान से; आवृतम् – आच्छादित; ज्ञानम् – ज्ञान; तेन – उससे; मुह्यन्ति – मोह-ग्रस्त होते हैं; जन्तवः – जीवगण |

  भावार्थ: परमेश्र्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है , न पुण्यों को | किन्तु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है |


💐💐💐💐

श्लोक 5 . 16

ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मनः |

तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् || १६ ||

शब्दार्थ: ज्ञानेन – ज्ञान से; तु – लेकिन; तत् – वह; अज्ञानम् – अविद्या; येषाम् – जिनका; नाशिताम् – नष्ट हो जाती है; आत्मनः – जीव का; तेषाम् – उनके; आदित्य-वत् – उदीयमान सूर्य के समान; ज्ञानम् – ज्ञान को; प्रकाशयति – प्रकट करता है; तत् परम् – कृष्णभावनामृत को |

  भावार्थ: किन्तु जब कोई उस ज्ञान से प्रबुद्ध होता है, जिससे अविद्या का विनाश होता है, तो उसके ज्ञान से सब कुछ उसी तरह प्रकट हो जाता है, जैसे दिन में सूर्य से सारी वस्तुएँ प्रकाशित हो जाती हैं |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 17

तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः |

गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः || १७ ||

शब्दार्थ: तत्-बुद्धयः – नित्य भगवत्परायण बुद्धि वाले; तत्-आत्मानः – जिनके मन सदैव भगवान् में लगे रहते हैं; तत्-निष्ठाः – जिनकी श्रद्धा एकमात्र परमेश्र्वर में है; तत्-परायणाः – जिन्होंने उनकी शरण ले रखी है; गच्छन्ति – जाते हैं; अपुनः-आवृत्तिम् – मुक्ति को; ज्ञान – ज्ञान द्वारा; निर्धूत – शुद्ध किये गये; कल्मषाः – पाप, अविद्या |

  भावार्थ: जब मन, बुद्धि, श्रद्धा तथा शरण सब कुछ भगवान् में स्थिर हो जाते हैं, तभी वह पूर्णज्ञान द्वारा समस्त कल्मष से शुद्ध होता है और मुक्ति के पथ पर अग्रसर होता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 18

विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |

श्रुनि चैव श्र्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः || १८ ||

शब्दार्थ: विद्या – शिक्षण; विनय – तथा विनम्रता से; सम्पन्ने – युक्त; ब्राह्मणे – ब्राह्मण में; गवि – गाय में; हस्तिनि – हाथी में; शुनि – कुत्ते में; च – तथा; एव – निश्चय ही; श्र्वपाके - कुत्ताभक्षी (चाण्डाल) में; च – क्रमशः; पण्डिताः – ज्ञानी; सम-दर्शिनः – समान दृष्टि से देखने वाले |

  भावार्थ: विनम्र साधुपुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान् तथा विनीत ब्राह्मण गाय, हाथी, कुत्ता तथा चाण्डाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 19

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः |

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः || १९ ||

शब्दार्थ: इह – इस जीवन में; एव – निश्चय ही; तैः – उनके द्वारा; जितः – जीता हुआ; सर्गः – जन्म तथा मृत्यु; येषम् – जिनका; साम्ये – समता में; स्थितम् – स्थित; मनः – मन; निर्दोषम् – दोषरहित; हि – निश्चय ही; समम् – समान; ब्रह्म – ब्रह्म की तरह; तस्मात् – अतः; ब्रह्मणि – परमेश्र्वर में; ते – वे; स्थिताः – स्थित हैं |

  भावार्थ: जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही जीत लिया है | वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 20

न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् |

स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद्ब्रह्मणि स्थितः || २० ||

शब्दार्थ: न – कभी नहीं; प्रह्रष्ये – हर्षित होता है; प्रियम् – प्रिय को; प्राप्य – प्राप्त करके; न – नहीं; उद्विजेत् – विचलित होता है; प्राप्य – प्राप्त करके; च – भी; अप्रियम् – अप्रिय को; स्थिर-बुद्धिः – आत्मबुद्धि, कृष्णचेतना; असम्मूढः – मोहरहित, संशयरहित; ब्रह्म-वित् – परब्रह्म को जानने वाला; ब्रह्मणि – ब्रह्म में; स्थितः – स्थित |

भावार्थ: जो न तो प्रिय वस्तु को पाकर हर्षित होता है और न अप्रिय को पाकर विचलित होता है, जो स्थिरबुद्धि है, जो मोहरहित और भगवद्विद्या को जानने वाला है वह पहले से ही ब्रह्म में स्थित रहता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 21

बाह्यस्पर्शेष्वसक्तात्मा विन्दत्यात्मनि यत्सुखम् |

स ब्रह्मयोगयुक्तात्मा सुखमक्षयमश्र्नुते || २१ ||

शब्दार्थ: बाह्य-स्पर्शेषु – बाह्य इन्द्रिय सुख में; असक्त-आत्मा – अनासक्त पुरुष; विन्दति – भोग करता है; आत्मनि – आत्मा में; यत् – जो; सुखम् – सुख; सः – वह; ब्रह्म-योग – ब्रह्म में एकाग्रता द्वारा; युक्त-आत्मा – आत्म युक्त या समाहित; सुखम् – सुख; अक्षयम् – असीम; अश्नुते – भोगता है |

भावार्थ: ऐसा मुक्त पुरुष भौतिक इन्द्रियसुख की ओर आकृष्ट नहीं होता, अपितु सदैव समाधि में रहकर अपने अन्तर में आनन्द का अनुभव करता है | इस प्रकार स्वरुपसिद्ध व्यक्ति परब्रह्म में एकाग्रचित्त होने के कारण असीम सुख भोगता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 22

ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते |

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः || २२ ||

शब्दार्थ: ये – जो; हि – निश्चय हि; संस्पर्श-जा – भौतिक इन्द्रियों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगाः – भोग; दुःख – दुःख; योनयः – स्त्रोत, कारण; एव – निश्चय हि; ते – वे; आदि – प्रारम्भ; अन्तवन्त – अन्तकाले; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; न – कभी नहीं; तेषु – उनमें; रमते – आनन्द लेता है; बुधः – बुद्धिमान् मनुष्य |

भावार्थ: बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं | हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 23

 शक्नोतीहैव यः सोढुं प्राक्शरीरविमोक्षणात् |

कामक्रोधद्भवं वेगं स युक्तः स सुखी नरः || २३ ||

शब्दार्थ: शक्नोति – समर्थ है; इह एव – इसी शरीर में; यः – जो; सोढुम् – सहन करने के लिए; प्राक् – पूर्व; शरीर – शरीर; विमोक्षनात् – त्याग करने से; काम – इच्छा; क्रोध – तथा क्रोध से; उद्भवम् – उत्पन्न; वेगम् – वेग को; सः – वह; युक्तः – समाधि में; सः – वही; सुखी – सुखी; नरः – मनुष्य |

भावार्थ: यदि इस शरीर को त्यागने के पूर्व कोई मनुष्य इन्द्रियों के वेगों को सहन करने तथा इच्छा एवं क्रोध के वेग को रोकने में समर्थ होता है, तो वह इस संसार में सुखी रह सकता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 24

 योSन्तःसुखोSन्तरारामस्तथान्तज्योर्तिरेव यः |

स योगी ब्रह्मनिर्वाणं ब्रह्मभूतोSधिगच्छति || २४ ||

शब्दार्थ: यः – जो; अन्तः-सुखः – अन्तर में सुखी; अन्तः-आरामः – अन्तर में रमण करने वाला अन्तर्मुखी; तथा – और; अन्तः-ज्योतिः – भीतर-भीतर लक्ष्य करते हुए; एव – निश्चय हि; यः – जो कोई; सः – वह; योगी – योगी; ब्रह्म-निर्वाणम् – परब्रह्म में मुक्ति; ब्रह्म-भूतः – स्वरुपसिद्ध; अधिगच्छति – प्राप्त करता है |

  भावार्थ: जो अन्तःकरण में सुख का अनुभव करता है, जो कर्मठ है और अन्तःकरण में ही रमण करता है तथा जिसका लक्ष्य अन्तर्मुखी होता है वह सचमुच पूर्ण योगी है | वह परब्रह्म में मुक्त पाता है और अन्ततोगत्वा ब्रह्म को प्राप्त होता है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 25

लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषयः क्षीणकल्मषाः |

छिन्नद्वैधा यतात्मानः सर्वभूतहिते रताः || २५ ||

शब्दार्थ: लभन्ते – प्राप्त करते हैं; ब्रह्म-निर्वाणम् – मुक्ति; ऋषयः – अन्तर से क्रियाशील रहने वाले; क्षीण-कल्मषाः – समस्त पापों से रहित; छिन्न – निवृत्त होकर; द्वैधाः – द्वैत से; यत-आत्मानः – आत्म-साक्षात्कार में निरत; सर्वभूत – समस्त जीवों के; हिते – कल्याण में; रताः – लगे हुए |

  भावार्थ: जो लोग संशय से उत्पन्न होने वाले द्वैत से परे हैं, जिनके मन आत्म-साक्षात्कार में रत हैं, जो समस्त जीवों के कल्याणकार्य करने में सदैव व्यस्त रहते हैं और जो समस्त पापों से रहित हैं, वे ब्रह्मनिर्वाण (मुक्ति) को प्राप्त होते हैं |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 26

कामक्रोधविमुक्तानां यतीनां यतचेतसाम् |

अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम् || २६ ||

शब्दार्थ: काम – इच्छाओं; क्रोध – तथा क्रोध से; विमुक्तानाम् – मुक्त पुरुषों की; यतीनाम् – साधु पुरुषों की; यत-चेतसाम् – मन के ऊपर संयम रखने वालों की; अभितः – निकट भविष्य में आश्र्वस्त; ब्रह्म-निर्वाणम् – ब्रह्म में मुक्ति; वर्तते – होती है; विदित-आत्मानम् – स्वरुपसिद्धों की |

  भावार्थ: जो क्रोध तथा समस्त भौतिक इच्छाओं से रहित हैं, जो स्वरुपसिद्ध, आत्मसंयमी हैं और संसिद्धि के लिए निरन्तर प्रयास करते हैं उनकी मुक्ति निकट भविष्य में सुनिश्चित है |


  💐💐💐💐


श्लोक 5 . 27-28

स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्र्चक्षुश्र्चैवान्तरे भ्रुवो: |

प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ || २७ ||

यतेन्द्रियमनोबुद्धिर्मुनिर्मोक्षपरायणः |

विगतेच्छाभयक्रोधो यः सदा मुक्त एव सः || २८ ||

शब्दार्थ: स्पर्शान् – इन्द्रियविषयों यथा ध्वनि को; कृत्वा – करके; बहिः – बाहरी; बाह्यान् – अनावश्यक; चक्षुः – आँखें; च – भी; एव – निश्चय हि; अन्तरे – मध्य में; भ्रुवोः – भौहों के। प्राण-अपानौ – उर्ध्व तथा अधोगामी वायु; समौ – रुद्ध; कृत्वा – करके; नास-अभ्यन्तर – नथुनों के भीतर; चारिणौ – चलने वाले;।

यत – संयमित; इन्द्रिय – इन्द्रियाँ; मनः – मन; बुद्धिः – बुद्धि; मुनिः – योगी; मोक्ष – मोक्ष के लिए; परायणः – तत्पर। विगत – परित्याग करके; इच्छा – इच्छाएँ; भय – डर; क्रोधः – क्रोध; यः – जो; सदा – सदैव; मुक्तः – मुक्त; एव – निश्चय ही; सः – वह |

  भावार्थ: समस्त इन्द्रियविषयों को बाहर करके, दृष्टि को भौंहों के मध्य में केन्द्रित करके, प्राण तथा अपान वायु को नथुनों के भीतर रोककर और इस तरह मन, इन्द्रियों तथा बुद्धि को वश में करके जो मोक्ष को लक्ष्य बनाता है वह योगी इच्छा, भय तथा क्रोध से रहित हो जाता है | जो निरन्तर इस अवस्था में रहता है, वह अवश्य ही मुक्त है |


💐💐💐💐


श्लोक 5 . 29

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्र्वरम् |

सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति || २९ ||

शब्दार्थः भोक्तारम् – भोगने वाला, भोक्ता; यज्ञ – यज्ञ; तपसाम् – तपस्या का; सर्वलोक – सम्पूर्ण लोकों तथा उनके देवताओं का; महा-ईश्र्वरम् – परमेश्र्वर; सुहृदम् – उपकारी; सर्व – समस्त; भूतानाम् – जीवों का; ज्ञात्वा – इस प्रकार जानकर; माम् – मुझ (कृष्ण) को; शान्तिम् – भौतिक यातना से मुक्ति; ऋच्छति – प्राप्त करता है |

  भावार्थः मुझे समस्त यज्ञों तथा तपस्याओं का परं भोक्ता, समस्त लोकों तथा देवताओं का परमेश्र्वर एवं समस्त जीवों का उपकारी एवं हितैषी जानकर मेरे भावनामृत से पूर्ण पुरुष भौतिक दुखों से शान्ति लाभ-करता है |


💐💐💐💐💐


ॐ तत्सदिति श्रीमद् भागवद् गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे श्रीकृष्णार्जुनसंवादे कर्मसंन्यासयोगो नाम पंचमोऽध्यायः | |5 | |


কোন মন্তব্য নেই

Blogger দ্বারা পরিচালিত.